Saturday, February 5, 2011

री माँ मेरा रोने को मन तरसे ( प्रदीप नील )

                          री माँ मेरा रोने को मन तरसे
                          काश गोकुल में बादल बरसे

कान्हा झोली पीड दे गया ,जब से छुडाया उसने  साथ
ग्वालिन इतना नीर बहावे जमुना चढ़ गई दो दो हाथ
एक अभागिन मैं ही बची माँ बारिश की बदली सी डोलूं
कोई न देखे आँख का पानी बदरा बरसे जी भर रो लूँ
                      बिजुरिया चमके तो मन हर्षे
                    री माँ  गोकुल में बादल बरसे
                                 (२ )
                    मैं भटकूँ निश् दिन ठांव-कुठाँव
                    काश कोई कांटा चुभे मेरे पाँव
जब से बिछुड़ी मैं कान्हा से, भर भर आयें बैरन अँखियाँ
लाज़ की मारी रो भी न पाऊं, ताने मुझको देंगी सखियाँ
काँटा चुभ के घाव बने तो घाव उम्र भर लिए फिरुंगी
रोज बहाना ले पीड़ा का, जी भर के रो लिया करुँगी
             उम्र भर रहना है गोकुल गाँव
            री माँ लो काँटा चुभा मेरे पाँव
                            ( ३ )
              री माँ सारा गोकुल ही बिसरावै
               कि राधा गीली लकड़ी जलावै
मेरा मन और गीला ईंधन,   दोनों की ही एक दशा
अभी लगे ज्यूँ अभी जला,अभी लगे ज्यूँ अभी बुझा
ना ही जले और ना ही बुझे ये सुलग सुलग कर दे धुआं
सब नैनों को चुभे री माँ ये मेरी आँख की बनी दवा
       आँख मेरी नीर ही नीर बहावे
      राधा क्यूँ ना गीली लकड़ी जलावे

2 comments:

  1. शानदार! बहुत अच्छा लगा आपकी रचना पढ़कर.

    www.mydunali.blogspot.com

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  2. आभारी हूँ मलखान जी आपकी नज़र का की रचना सुंदर लगी

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