Wednesday, August 23, 2017

मैं नटनी थी , मैं ठगनी थी , फिर भी धोखा खा गई
घर से चली थी हरि ठगन को , खुद को ठगा के आ गई .

सोचा तो था नैन मिलाके , हरि को अपना बना लूंगी
या थोडा सा नाच और गा के , अपना उसे बना लूंगी
ठगों का ठग हंस के यूं बोला - अच्छा तो ठगनी आ गई
घर से चली थी हरि ठगन को , खुद को ठगा के आ गई .

ऐसी धुन फिर छेड़ी उसने , खुद को ही मैं भूल गई
ना जाने कब आंचल ढलका , कहाँ मेरी पाजेब गिरी
पवन हिंडोले उड़ने लगी मैं , ऐसी खुमारी छा गई
घर से चली थी हरि ठगन को , खुद को ठगा के आ गई .

भेद है इसमें कितना गहरा , दिखने में तो बात जरा सी
वो कहे मैं दास तुम्हारा , मैं बोलूं मैं तेरी दासी
मैं बडभागन हुई सुहागन , जब से उसको पा गई
घर से चली थी हरि ठगन को , खुद को ठगा के आ गई .