Wednesday, August 23, 2017

मैं नटनी थी , मैं ठगनी थी , फिर भी धोखा खा गई
घर से चली थी हरि ठगन को , खुद को ठगा के आ गई .

सोचा तो था नैन मिलाके , हरि को अपना बना लूंगी
या थोडा सा नाच और गा के , अपना उसे बना लूंगी
ठगों का ठग हंस के यूं बोला - अच्छा तो ठगनी आ गई
घर से चली थी हरि ठगन को , खुद को ठगा के आ गई .

ऐसी धुन फिर छेड़ी उसने , खुद को ही मैं भूल गई
ना जाने कब आंचल ढलका , कहाँ मेरी पाजेब गिरी
पवन हिंडोले उड़ने लगी मैं , ऐसी खुमारी छा गई
घर से चली थी हरि ठगन को , खुद को ठगा के आ गई .

भेद है इसमें कितना गहरा , दिखने में तो बात जरा सी
वो कहे मैं दास तुम्हारा , मैं बोलूं मैं तेरी दासी
मैं बडभागन हुई सुहागन , जब से उसको पा गई
घर से चली थी हरि ठगन को , खुद को ठगा के आ गई .

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (25-08-2017) को "पुनः नया अध्याय" (चर्चा अंक 2707) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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